Monday, September 25, 2017

चलता ही गया


खामोशियों  की उंगली थाम मैं बढ़ता ही गया।
मंज़िल पता न थी फ़िर  भी मैं  चलता ही गया।

उसके हसीन फरेबों  ने अहसास न होने दिया,
मैं  बेख़बर रहा  और  बदन  छिलता  ही  गया।

मेरे  अपने  हिस्से में  कोई  ख़ुशी  ही कहाँ  थी,
वह  खुश  था  यह  देखकर  मैं हँसता ही गया।

ख़ुद को भी माफ करने की क़ुव्वत न थी मुझमें,
न  जाने क्यों  उसकी  हर बात सहता ही गया।

एक  बार  देखा  निगाहों  में फिर सब भूल गए,
उसने  जैसा भी  कहा मैं  वैसा  करता ही गया।

मेरा  ख़ुद  का  कोई  रास्ता  ही न हुआ 'कुमार'
वो  जिधर भी ले चला मैं  उधर बहता ही गया।

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