घिरते काले मेघ जब जब,
चित्त में कुछ कौंध जाता है।
एक अनजानी सी दस्तक,
मन सहसा चौंक जाता है।
दामिनी खींच देती है जैसे,
काले बादलों पर लेख कोई।
वर्तमान के बेरंग पलों में,
भरता है चटख रंग कोई।
बादलों की धमाचौकड़ी में,
मानो कोई फुसफुसाता है।
सुखद अतीत की कहानी,
कानों में हौले से सुनाता है।
बाहें मेरी होती थी कभी,
रैन बसेरा उस साजन का।
जो आया कभी न लौटकर,
वादा कर अगले सावन का।
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