निःशब्द सा अर्थहीन संवाद
इक भूली - भूली सी याद
मनमंदिर की वो प्यारी मूरत
इक अनचाही सी मेरी जरूरत
मन में जलती मद्धम सी अगन
स्वप्नों में बजते स्वर्ण कंगन।
अधरों की प्यास बुझाते अधर
लहरों को चिढ़ाती कृश कमर
उठती गिरती पलक लयबद्ध
उठता यौवन सुखद समृद्ध
सोती रहती जिसमें काली रातें
चमकीले केशों की वो सौगातें।
तबियत मचली जब हँसे अधर
बातें करती थी चुपचाप नजर
साँसों से उलझी होती थी साँसें
मेरी राह देखती व्याकुल आँखें
मुझको को देख विवश हो जाना
इन बाहों के पाश में कस जाना।
जाने क्यूँ कर टूटा था ये बंधन
बरसी थी आंखे मन में थी अगन
भीगी पलकें , वो बिदा की शाम
मन में उठा था शान्त कोहराम
इक मंजिल का राही दो राह चला
खुद से ही खुद हो गया अकेला।
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