Saturday, July 29, 2017

चितचोर

चितचोर चोरी कर गया जिया!

खूब   भरमाया   उसने   मुझे,
अलकों  की  भूल  भुलैया  में।
मैं   डूबा   रहा   कितने   दिन,
नयनों  की  ताल   तलैया  में।
यह  मन  भी  बड़ा  बावरा है,
रीझ गया उस पर रसिया।1।

उसके अरुणिम  अधरों  ने,
मुश्किल कर दिया है जीना।
उसका  हर   अंग  नशीला,
पोर-पोर  यौवन रस भीना।
बरसे  जो  रस  की   फ़ुहार,
फूले मेरे  मन की बगिया।2।

अधखुले     दृगों    से      वह ,
मन मृग का शिकार करती है।
अलकावलि  में  सजे  पुष्प से,
तारों  को  भी  मात  करती है।
स्वप्नों    ही   स्वप्नों    में    मैं,
बन  बैठा  हूँ उसका पिया ।3।

Friday, July 28, 2017

ख़्वाब या हकीकत

आज  उन्होंने  हँसकर  मेरा हाल पूँछा।
झुकी नजरों ने मुझसे इक सवाल पूँछा।

जिसका  जवाब  हम  उनसे  चाहते  थे,
उन्होंने  उसी  सवाल  का जवाब  पूँछा।

खुली आँखों  से  मैं जो देखा करता था,
उन्होंने मुझसे आज  वही  ख्वाब  पूँछा।

दिलों  की  सौदेबाज़ी भी हो ही जाएगी,
जब  दिलों ने आपस मे भाव ताव पूँछा।

देखा है जो कुछ ख्वाब या हक़ीकत  है,
मैने खुद से 'कुमार' ये हजार बार पूँछा।

Thursday, July 27, 2017

हाल पूँछते हैं !

खुद  से ही खुद का हम हाल पूँछते हैं।
रास्तों से मंजिल का  मुकाम पूँछते हैं।

अकेले  में  तो पी-पीकर थक गया हूँ ,
तनहाई से महफ़िल का जाम पूँछते हैं।

बेहोशी  का  आलम हम  क्या  बतायें,
हर  रहगुज़र से अपना नाम  पूँछते हैं।

कभी  हमारी आगोश  में जो  किये  थे,
हम  उनके  वही  वादे तमाम पूँछते  हैं।

जब  कोई  नाम  लेता है मोहब्बत  का,
हम उससे इश्क़  का अंजाम पूँछते  हैं।

'कुमार' हर किसी को वफ़ा मिलती हो,
पता बताओ हम वही अवाम पूँछते हैं।

Tuesday, July 25, 2017

अर्थहीन संवाद

निःशब्द   सा  अर्थहीन   संवाद
इक    भूली - भूली    सी    याद
मनमंदिर  की  वो  प्यारी  मूरत
इक अनचाही  सी मेरी जरूरत
मन में जलती मद्धम  सी अगन
स्वप्नों  में  बजते  स्वर्ण  कंगन।

अधरों की  प्यास बुझाते अधर
लहरों  को  चिढ़ाती  कृश कमर
उठती  गिरती  पलक  लयबद्ध
उठता   यौवन    सुखद   समृद्ध
सोती  रहती जिसमें काली रातें
चमकीले केशों  की वो सौगातें।

तबियत  मचली जब हँसे अधर
बातें  करती थी  चुपचाप  नजर
साँसों से  उलझी होती थी साँसें
मेरी राह  देखती  व्याकुल आँखें
मुझको को  देख विवश हो जाना
इन बाहों के पाश में  कस जाना।

जाने क्यूँ कर  टूटा  था ये  बंधन
बरसी थी आंखे मन में थी अगन
भीगी पलकें , वो  बिदा की  शाम
मन  में उठा  था शान्त  कोहराम
इक मंजिल का राही दो राह चला
खुद से ही खुद  हो गया अकेला।

Monday, July 24, 2017

जरूरी नही

ज़रूरी  नही  बग़ावत  अंजाम तक  पहुँचे।
हर  मुसाफ़िर   यहाँ   मुकाम   तक  पहुँचे।

धुँधलकों  ने  बड़ा  धोखा  दिया सफर में,
निकले  थे  सहर खोजने शाम तक पहुँचे।

फाइलों  में  पूरी  हो गई  फ़रमाइशें  सारी,
बात तब है जब फ़ैसला अवाम तक पहुँचे।

दरिया को सोखकर समंदर रह गया प्यासा,
मैक़दे में  कहाँ  हर  होठ जाम  तक पहुँचे ।

थोड़ी  ज़िल्लत   मैं  भी  सह  लूँगा  'कुमार',
अगर यूँ कोई बात मेरी सरकार तक पहुँचे।

आज का इंसान

हँसते   हुए   चेहरों   के पीछे,
गम   की   छुपी   दुकान   है ।
भौतिकता   के   महापंक   में,
जीवन  का  पंकज  म्लान  है।
दिखती    यही   तस्वीर    है ,
ये   आज    का    इंसान   है ।

इंसानियत  का  चोला  ओढ़े,
अंदर  से  तो  ये  शैतान  है ।
वृत्तियाँ  हैं  सब दुराचारी सी,
हाथों में गीता और कुरान है।
झूठी  नैतिकता  का   पुतला,
ये   आज   का   इंसान    है ।

अभिमान  पद  पैसे का देखो,
चेहरे पर कुटिल मुस्कान  है।
रिश्तों में  सौदेबाजी  करता ,
धर्म से हिन्दू न मुसलमान है।
हो   सके  तो  समझ  जाओ ,
ये   आज    का   इंसान    है ।

इनायत

जब  भी  वो  हमारी  ज़ानिब  नजर करते हैं।
हम  क्या  बतायें  की   कैसे  सबर करते  हैं।

मुस्कुराने से  उनके  कौंध  जाती है  बिजली,
वो   पाँव   की   महावर  से  सहर  करते   हैं।

गजरे  की सुवास से  सहर की नसीम  महके,
खुले गेसू तो रात के आने की खबर करते हैं।

उठे    जो   नजरें    तो    नज़ारे    थम   जायें ,
खुले जो लब तो सरगम  सा  असर करते हैं।

बेवजह  भी   होती   है   इनायत   ख़ुदा   की ,
पता चला है 'कुमार' वो मेरी फिकर करते हैं।

ख्वाहिशों का टुकड़ा

न सच  बिकता  है, न झूठ  बिकता  है।
बाज़ार  में आइना नही रूप बिकता  है।

इन स्याह अँधेरों की  हक़ीक़त क्या  है,
रौशनी के हाथों इनका वजूद बिकता है।

जो  दौड़े  थे  उनके  ही  हाथ ना  आया ,
सिक्कों  के लिये यहाँ  सुकून बिकता है।

तेरे कदमों  के निशां ही चुगली करते हैं,
कोई  ग़ैर क्यों  यहाँ  फ़िजूल बिकता  है।

पुरजोर  कोशिश  करने  पर  भी 'कुमार',
ख्वाहिशों का टुकड़ा दोनो जून बिकता है।

Sunday, July 23, 2017

पहचान गये !

अपना भला बुरा सब जान गये ।
ऐ  जिंदगी  तुझे  पहचान   गये ।

कुछ  तो  फर्क  है  हम  दोनों  में ,
तुम  रूठ  गये, हम  मान  गये ।

महफूज   है    खालीपन   मेरा ,
जाने  कितनी बार दुकान गये ।

मत   पूँछ  अँधेरों  की  हालत ,
जब  बनके  वहाँ  चिराग  गये ।

इस   दर्प   से  हासिल    क्या ,
तुम  जैसे  कितने श्मसान गये।

मेरा हाल पूँछा

आज  उन्होंने  हँसकर  मेरा हाल पूँछा। झुकी नजरों ने मुझसे इक सवाल पूँछा। जिसका  जवाब  हम  उनसे  चाहते  थे, उन्होंने  उसी  सवाल  का जवाब  ...